महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर ने की थी कुरुक्षेत्र अष्टकोसी परिक्रमा,अब फिर एक बार जगाने के प्रयास

पावन और वैभवशाली अतीत ने धर्मभूमि कुरुक्षेत्र सुसज्जित और गरिमामय स्थल के रुप में स्थापित किया है. यहीं वेद पुराण, उपनिषद लिखे गये.यहीं विराजमान है 52 शक्तिपीठों में से एक मां भद्रकाली शक्तिपीठ,जहां रविवार से नवरात्र उत्सव की धूम है और देश दुनिया के श्रद्धालु यहां पहुंच रहे हैं. वैसे शनिवार से नवरात्र की कड़ी में विशाल शोभायात्रा का आगाज हवन यज्ञ और अनुष्ठान से हो चुका है,जबकि एक दिन पहले धर्मभूमि से एक बार फिर अष्ठकोसी परिक्रमा को जागृत करने अहम शुरुआत कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड और हरियाणा सरस्वती विरासत बोर्ड ने की है. एक खास प्रयासों से शुरु हुई अष्टकोसी परिक्रमा में बुजुर्ग,महिलाएं और युवाओं के अलावा दोनों बोर्डों के पदाधिकारी,सदस्य ,पूर्व सदस्य,धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधि संत महात्मा शामिल हुए.
इस परिक्रमा के बारे में जानना जरूरी
महाभारतकाल से भी पहले से चली आ रही यह परिक्रमा का महिमामंडन इस उद्देश्य से भी जरुरी हो जाता है कि देश-दुनिया में जो भारतीय संस्कृति और तीर्थ परंपराओं में रुचि रखता है या थोड़ी भी जानकारी रखता है,उनमें कुरुक्षेत्र का महत्व गीता और महाभारत तक ही सीमित है,लेकिन यह अष्टकोसी परिक्रमा प्रमाणित करती है कि पावन कुरुधरा के पवित्र तीर्थ स्थल का महत्व क्या है. राजा कुरु ने जहां अष्टांग धर्म की स्थापना कि थी यह वही कुरुक्षेत्र.भगवान श्रीकृष्ण ने गीता उपदेश के माध्यम से जहां विश्व को कर्म का संदेश दिया,उस गीता की जन्मस्थली कुरुक्षेत्र है. वर्धन वंश के शासक एवं अंतिम हिंदू सम्राट हर्ष वर्धन की राजधानी भी यही भूमि रही. पवित्र तीथों के तट, मठ, मंदिर, आश्रमों और ऋषियों की तपोस्थली है कुरुक्षेत्र. और इसी कुरुक्षेत्र में धर्मराज युधिष्ठिर ने पांच हजार साल पहले शुरु की थी अष्टकोसी परिक्रमा.
पांच हजार साल से चली आ रही यह परिक्रमा केवल धर्मग्रंथों, पुरानी स्मृतियों में तक सीमित न रहे, इसके लिये जरूरी है कि अष्टकोसी परिक्रमा पथ की पुख्ता व्यवस्था. अगर अष्टकोसी परिक्रमा के पथ और प्राचीन तीर्थ लुप्त होते रहे तो वह दिन दूर नहीं, जब कुरुक्षेत्र के वामन द्वादशी मेले और होली के दिन लगने वाले कंकरियों के मेले की तरह अष्टकोसी परिक्रमा भी धुंधली यादों में सिमट जाए. पृष्ठभूमि-युधिष्ठिर ने महाभारत युद्ध के बाद कुछ विशेष कार्य कराये थे. इनमें वीरों के परिजनों के साथ कुलतारण तीर्थ किरमिच में पिंडदान और महाभारत युद्ध के पश्चात युद्धिष्ठिर ने अष्टकोसी परिधि में विरामजान तीर्थों की परिक्रमा की थी.
कुरुक्षेत्र है हिंदुओं के बीच समादृत
वरिष्ठ (105 वर्ष) द्वारा लिखी एक पत्रिका के अनुसार 48 कोस को कुरुक्षेत्र कहा जाता था और इन 48 कोस में 8 कोस के क्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहा जाता था, की व्याख्या भी की है. कौरवों-पांडवों की सेनाओं के पंडाल भी इसी अष्टकोसी धर्मक्षेत्र की परिधि के बीच थे, जिसे दोनों सेनाओं की छावनी भी कहा जा सकता है, जहां युद्ध नहीं लड़ा गया. प्रतिवर्ष चैत्रमास कृष्ण पक्ष की चौदस को अष्टकोसी परिक्रमा की परंपरा पांच हजार साल पुरानी है.
इस चैत्र चौदस के एक दिन बाद चंद्र कलेंडर के लिहाज से भारतीय देशी नववर्ष की शुरुआत भी होती है. यह यात्रा चैत्र चौदस को ही कुरुक्षेत्र कई तीर्थों के स्नान, पूजा अर्चना के साथ होती है. इस पावन अवसर पर विविध तरह के दान पुण्य करने का भी महत्व धर्मग्रंथों में मिलता है. इसका सबसे बड़ा मेला पिहोवा में सरस्वती तीर्थ पर अष्टकोसी परिक्रमा से बाहर होता है.
कैसे होती है परिक्रमा
कैसे होती है परिक्रमा? इसमें चार बिंदु हैं. ब्रह्ममुहूर्त में गुत्री परिक्रमा की शुरुआत नाभिकमल ताथ पर एकत्रित होते हैं. बता दें कि नाभिकमल सृष्टि से रचियता ब्रह्माजी का उत्पत्ति स्थल है. इसी स्थल पर राजा कुरु, जिनके नाम से इस को कुरुक्षेत्र कहा गया, उन्होंने इस भूमि पर अष्टांग धर्म (तप, सत्य, क्षमा, दया, शौच, दान, योग और ब्रह्मचर्य) की स्थापना की थी. राजा कुरु ने इसी नाभिकमल तीर्थ पर से अष्टांग धर्म के संकल्प की शुरुआत कुरुध्वज फहराकर की थी. यहां गौरतलब है कि ब्रिटिश पुराततत्वविद् एवं एवं पुरातत्व क्षेत्र के जनक कहे जाने वाले अलेक्जेंडर कनिंघम ने भी अपने करीब पौने 200 साल पुरानी पुस्तक में कुरुध्वजा तीर्थ का जिक्र किया है. इस पुस्तक में कनिंघम ने बकायदा एक नक्शा भी दिया है, जिसमें कुरुध्वजा तीर्थ को दर्शाया गया है.
परिक्रमा का अगला-नाभि कमल तीर्थ के बाद परिक्रमा का पड़ाव सरस्वती नदी के तट पर सोम तीर्थ (औजस तीर्थ) पर होता है. यहां महिलाओं का जाना वर्जित हैं, क्योंकि इस तीर्थ को भगवान शंकर के पुत्र कार्तिकेय का स्थान है और भगवान कार्तिकेय के मंदिरों में महिलाओं का प्रवेश नहीं होता. इस तीर्थ पर सिंदूर और तेल का अर्पण होता है, क्योंकि सी मोत है कि कार्तिकेय अपनी गदा से इस पुण्यभूमि की रक्षा करते हैं. इसके बाद सरस्वती नदी के किनारे चलते हुए, कुरुक्षेत्र के स्वामी स्थाणीश्वर महादेव के अति पुण्य में तीर्थ पर यात्रा पहुंचती है. भगवान शिव के नाम पर ही कुरुक्षेत्र का एक नाम स्थाणीश्वर भी पड़ा, जिसका अपभ्रंश थानेसर है.
स्थाणीश्वर महादेव तीर्थ के सरोवर के पास ही रुद्रकूप विद्यमान है. माना जाता है कि सरस्वती और गुप्त रूप से गंगा इसके जल में विद्यमान है. यात्री स्थाणीश्वर देवालय के दर्शन और सरोवर में स्नान करके ब्राह्मण भोज कराते हैं और नाना प्रकार के दान आदि देकर यहां रवाना होते हैं.
कुबेर भंडार का भी है महात्म्य
अगला पड़ाव सरस्वती किनारे पूर्व की ओर चलते हुए, अगला तीर्थ कुबेर भंडार आता है. पूर्व काल में यक्ष राज धन के स्वामी कुबेर ने इसी स्थान पर तप कर दिकपाल धनाश्य के पद की प्राप्ति की थी. पुराणों में वर्णन मिलता है कि महाभारत युद्ध के दौरान सरस्वती के तीर्थों की यात्रा करते हुए, श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम जी भी कुबेर भंडार पर आये थे. पिछली कई सदियों पहले इसी तीर्थ पर महाप्रभु वल्लभाचार्य जी, जिनकी परंपरा से राजस्थान के नाथद्वारा में श्रीनाथजी का प्रख्यात प्राचीन मंदिर चलता है, उन्होंने यहां अपने जीवनकाल में भागवत सप्ताह की थी. भारत के प्राचीन इतिहास के पन्नों पर यह प्रमाण मिलते हैं कि लगभग 70 जगहों पर महाप्रभु ने भागवत सप्ताह की, जिसमें वर्तमान राज्य हरियाणा का एकमात्र स्थान कुरुक्षेत्र में भद्रकाली शक्तिपीठ के पीछे कुबेर तीर्थ है, जहां महाप्रभु जी की बैठक विराजमान है. आज भी राजस्थान और गुजरात सहित कई राज्यों से महाप्रभुजी की बैठक के दर्शनों के लिये साल के एक विशेष दिन पर यहां पहुंचते हैं. इस तीर्थ पर पूजा अर्चना से धनधान्य की प्राप्ति होती है और कुछ लोग यहां की मिट्टी भी यहां से ले जाकर अपने धनकोष में रखते हैं.
इसके बाद पूर्व दिशा में सरस्वती के किनारे चलते चलते मौजूदा रेलवे लाइन के नजदीक शीर सागर तीर्थ वर्तमान में लुप्त है, लेकिनयात्री अब रेलवे लाइन के पास भूमि पर ही दूध और चावल, श्वेत वस्त्र, श्वेत चंदन, सूचे मोती और चांदी आदि का दान करते हैं. शीरसागर तीर्थ के बाद सरस्वती के किनारे ऋषि दधीची का कुंड है.
वर्तमान में यह कुंड भी लुप्त है. इस तीर्थ पर पंच रत्न और वस्त्र आभूषण आदि दान की महिमा बताई गई है. इसकी कुछ ही दूरी पर वृद्ध कन्या तीर्थ है. पुराणों के अनुसार ऋषि भारद्वाज की पुत्री ने वृद्धावस्था तक जप तप कर यहां शरीर का त्याग कर मोक्ष प्राप्त किया था. इसी कारण इस स्थल का नाम वृद्ध कन्या पड़ा था. तीर्थ यात्री यहां गोदान और वस्त्र का दान करते हैं. इसके पश्चात सरस्वती के किनारे चलते हुए परिक्रमा रंतुक यक्ष की ओर पहुंचती है. यह स्थान 48 कोस कुरुक्षेत्र का उत्तर पूर्व कोने का यक्ष है. वता कि 48 कोस कुरुभूमि पर महाभारत युद्ध शुरु होने से पहले चारों कोणों पर चार यक्ष तैनात किये गये थे. इनमें मौजूदा कुरुक्षेत्र में पड़ने वाले उत्तर पूर्व के कोने में रंतुक यक्ष, पानीपत जिला में पड़ने वाले दक्षिण पूर्व कोने में गांव सींक में मचक्रूक, जींद जिला में पड़ने वाले गांव पोखर खेड़ी में पुष्कर यक्ष और कैथल जिला में पंजाब की सीमा के निकट गांव बहर में अरंतुक यक्ष का स्थान है. इन्हीं चार यक्षों में अष्टकोसी परिक्रमा के दौरान रंतुक यक्ष पर चिट्टा मंदिर पहुंचती है. यहां शिव की पूजा का विधान है.
इसके पश्चात मौजूदा पुलिस लाइन से गुजर कर पलवल गांव नजदीक रेलवे लाइन के पास पौराणिक तीर्थ पर दीप प्रज्ववलित किये जाते हैं. तीर्थ यात्री यहां सर्व कुटुंब और जान पहचान वाले व्यक्तियों के नाम पर दान दक्षिणा करते हैं. यहां पर गज कैंची दानइत्यादि का महत्व है. यही स्थान यात्रा अर्ध पड़ाव माना गया है. यहां विश्राम करके यात्रियों की गणना होती है और कुछ मुद्रा परिक्रमा कराने वाले पुरोहितों को देने की परंपरा हैं. इस चमत्कारी स्थान पर प्राचीन समय में साधु संतों ने ओघड़ रह कर बड़ी बड़ी सिद्धियां प्राप्त की थी, इसी लिये इस औघड़िया तीर्थ के नाम से भी जाना जाता है.
बाणगंगा में है गंगा का गुप्त वास
इसके पश्चात गांव दयालपुर स्थित बाणगंगा पहुंचते हैं, जहां गंगा जी का गुप्त वास माना गया है. महाभारत युद्ध के १३ वें दिन अभिमन्यु को धोखे से मारने वाले जयद्रथ को मारने की प्रतिज्ञाबद्ध अर्जुन ने अपने घोड़ों के साथ यहां विश्राम किया था. इस दौरान उन्होंने अपने घोड़ों जल पिलाने के लिये इसी जगह बाण मारकर गंगा प्रवाहित की थी.
इस तीर्थ पर यात्री स्नान करने के पश्चात अगले तीर्थ आपगा (उप गया) नामक प्रसिद्ध तीर्थ पर पहुंचते हैं. पौराणिक समय में वैतरणी नदी यहीं से होकर गुजरती थी. उप गया तीर्थ पर पितृ ऋण से मुक्ति के लिये पिंडदान काविधान है. पितरों के निमित शैय्या, वस्त्र, आभूषण आदि दान कर हवन करके अक्षय लोक की प्राप्ति होती है. इस स्थान पर सामयकचावल और घृत मिश्रित यज्ञ से यदि ब्राह्मण भोज कराया जाए तो पितर तृप्त होकर मनोकामनाएं पूरी करते हैं. विधि पूर्वक यात्रा करते हुए इसके पश्चात मृत्युंजयपुर जोकि वर्तमान में मिर्जापुर गांव है, उसके एक छोर पर कर्ण के टीले से होते हुए गांव नरकातारी स्थित बाण गंगा भीष्ण कुंड पहुंचा जाता है. यहां तीर्थ सेवन से नरकीय जीवन भी पापमुक्त हो जाता है. इसलिये इसे अनरक तीर्थ भी कहा जाता है. महाभारत युद्ध में अर्जुन के अनगिनत बाणों से घायल होने के बाद भीष्मपितामह 58 दिनों तक उत्तरायण की माघ शुक्ल अष्टमी तक यहीं रहे थे. अर्जुन ने भीष्मपितामह की प्यास बुझाने के लिये तीर मारकर गंगाजी प्रकट की थी. वर्तमान में यहां बाण गंगा कुंड भव्य रुप में विराजमान है. इसी स्थान पर युद्ध समाप्ति पश्चात भीष्मपितामह ने युधिष्ठिर को विष्णु सहस्त्र नाम मंत्र दिया था. यहां आने वाले तीर्थ यात्री आवश्य ही विष्णु सहस्त्र नाम का जप किया.
करते हैं. नरकातारी भीष्मकुंड में जल एवं अन्न दान देने का विधान है. भीष्ण कुंड से ही अष्टकोसी परिक्रमा की वापिसी बाहरी गांव के सोम कार्तिकेय तीर्थ से होते नाभिकमल तीर्थ पर संपूर्ण होती है. जहां संध्या वंदन आरती करके तीर्थ यात्री अपने घरों की ओर प्रस्थान करते हैं और उदयापन के पश्चात अन्नजल ग्रहण करते हैं.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]
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